पचास के दशक में देश में सिर्फ एक ही साइकिलिस्ट की हनक थी…वह थे धन्ना सिंह। उनकी कहानी बेहद रोचक और दिल दहला देने वाली है। उनसे भी यदि कोई फिल्म निर्माता या निर्देशक टकराता तो उनके जीवन पर बेहद शानदार फिल्म बनती। उनके जीवन का संघर्ष, अनपढ़ होते हुए भी अपने मेहनत और साइकिलिंग […]
पचास के दशक में देश में सिर्फ एक ही साइकिलिस्ट की हनक थी…वह थे धन्ना सिंह। उनकी कहानी बेहद रोचक और दिल दहला देने वाली है। उनसे भी यदि कोई फिल्म निर्माता या निर्देशक टकराता तो उनके जीवन पर बेहद शानदार फिल्म बनती। उनके जीवन का संघर्ष, अनपढ़ होते हुए भी अपने मेहनत और साइकिलिंग से दनिया के कई देशों की सैर, उस जमाने में विदेश में उनके इतने प्रशंसक…उनकी कहानी में एक मजदूर से ग्मैमर का शिखर छूने वाले सारे तत्व मौजूद हैं।
१९२४ में जन्मे धन्ना सिंह ने मजदूरी की, रेलवे की लाइन बिछाई, बेलदारीगीरी की। किसी अंग्रेस ने खुश होकर उन्हें साइकिल दे दी और बस उनकी साइकिलिंग शुरू हो गई। जिला चैंपियन से लेकर राष्ट्रीय चैंपियन तक बने। उस दौर में राज कुमार मेहरा, नेताई बसक, प्रदीप, सुप्रोवत चक्रवर्ती, मोहन कुमार, राम दास जैसे धुरंधर साइकिलिस्टों को उन्होंने हराया। उनके दमखम का अंदाजा इसी ले लगाया जा सकता है कि वह १००० मीटर के भी राष्ट्रीय चैंपियन बने और १८९ किलोमीटर की रेस के भी। रेलवे में उन्हें नौकरी मिली तो रेलवे के भी चैंपियन बने।
जर्मनी, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया जैसे कई देशों का उन्होंने दौरा किया।उस दौर में यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो ने धन्ना सिंह को १८ हजार रुपए महीना पगार, रहने को घर और वहां की नागरिकता का प्रस्ताव दिया था। पर देशप्रेमी धन्ना सिंह ने इसे ठुकरा दिया। जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री ने अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में उन्हें सम्मानित किया। राष्ट्रपति रहे ज्ञानी जैल सिंह व केंद्रीय मंत्री रहे सरदार बूटा सिंह उनके जबरदस्त प्रशंसक रहे। उन्हें खेल विभाग ने कुछ समय तक पेंशन दी। अस्सी के दशक में खेल निदेशक रहे जमन लाल शर्मा ने उन्हें साइकिलिंग का कोच भी बनाया।
अगर इस महान साइकिलिस्ट से कोई फिल्म निर्माता या निर्देशक टकराता तो जरूर उनके जीवन पर फिल्म बनाता। उनकी कहानी जर्रे से आफताब बनने और फिर बदहाली में लौटती। उसमें गरीबी, संघर्ष होता तो ग्लैमर का तड़का भी। इंसानियत के साथ एक मजबूत इरादे वाला इंसान भी होता।
सुर्खियों में रहने वाले धन्ना सिंह के आखिरी दिन गुमनामी में बीते। तीन दिन पहले उनकी बहुत याद आई। मुझसे वह अपने दुःख-दर्द बांटते थे। आठ मार्च, १९९९ को मेडिकल का’लेज के गांधी अस्पताल में उनके हाथ से जिंदगी का हैंडल छूट गया।
आज भी उनकी पत्नी व बच्चे एलडीए कालोनी, कानपुर रोड में धन्ना सिंह की यादों के सहारे जी रहे हैं।